अंशुल त्यागी
दीवार के पार भी दुनिया है, उस दुनिया में भी टैलेंट पूरा है और उस टैलेंट को ढ़ूंढकर बुराई को भगाकर अच्चाई को ज़हन में उतारा जा सकता है। जी हां यही दिखाती और बताती है निर्देशक नागराज मंजुले (Nagraj Manjule) और लीड अमिताभ बच्चन (Amitabh Bacchan) की ये फिल्म झुंड (Jhund).
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मेरे फिल्मी ज्ञान के अनुसार पहली बार किसी की लाइफस्टोरी कर रहे अमिताभ बच्चन की लगभग 3 घंटे लंबी ये फिल्म एक समय पर फिल्म सुपर 30 की याद दिलाती है तो एक समय पर जौली की अदालत में दी गई जज को समझाने वाली ज्ञानवर्धक मोटिवेशनल स्पीच को रिकॉल करवाती है।
फिल्म और कहानी
फिल्म की बात करें तो फिल्म विजय बरसे के ऊपर बनाई गई है जो सबसे पहले लोगों की नज़रों में आमिर के शो सत्यमेव जयते से आए थे। जिन्हें मास्टर ब्लास्टर यानी सचिन तेंदुलकर से रियल हीरो अवॉर्ड भी मिल चुका है। विजय बरसे फिलहाल रियल लाइफ में स्लम सॉकर के नाम से एक एनजीओ अकेडमी चलाते हैं जो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल टूर्नामेंट आयोजित करता है। और इसी अकेडमी से अखिलेश पॉल नाम के एक खिलाड़ी भारत के लिए एटीके मोहन बागान एफसी के लिए खेलते हैं। खैर आगे और भी बात करेंगे लेकिन अब आपको फिल्म की कहानी बताते हैं। तो फिल्म की शुरुआत होती है एक स्लम बस्ती से और चलती रेल से कोयला चुराते बच्चे और लोगों से, इसके साथ ही नशा करते नौजवानों से भी और अमिताभ की एंट्री एक टीचर की ही तरह नशा कर झगड़ रहे लड़कों को दूर हटाने से। फिल्म में विजय बोराडे यानी अभिताभ बच्चन एक बड़े से कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर तैनात होते हैं और बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग देते हैं लेकिन उनका रिटायरमेंट भी उसी दौरान आस-पास होता है, कॉलेज की दीवार एक स्लम इलाके से मिली दिखाई जाती है और कॉलेज जाने के दौरान अमिताभ बच्चन एक दिन बारिश के कारण एक जगह रुक जाते हैं जहां उन्हें स्लम बस्ती के सारे युवा एक टूटे डब्बे से फुटबॉल खेलते नज़र आते हैं और फिर अमिताभ भविष्य को देखते हुए एक फुटबॉल और 500 रुपये का लालच देकर उन बच्चों को रोज़ाना 40 मिनट फुटबॉल खिलाना और उनका जीवन सुधारने के लिए उन्हें सिखाना शुरु कर देते हैं। बस यहीं से शुरु होता है रियल लाइफ के विजय बरसे और रील लाइफ में अभिताभ यानी विजय बोराडे का सफर।
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कैसी है एक्टिंग
फिल्म में एक्टिंग की बात करें तो प्रोफेसर का रोल निभा रहे और अपने खर्चे पर टूर्नामेंट का और बच्चों का भविष्य बना रहे विजय बोराडे यानी अमिताभ बच्चन को जज करना शायद अंधेरे में रोशनी ढ़ूंढने जैसा होगा उनका काम हर बार की तरह शानदार है लेकिन इस फिल्म में अंकुश मसराम उर्फ डॉन के साथ बाबू और बाकी कई बच्चों का अभिनय लाजवाब है और रियलिस्टिक फील देता दिखता है। फिल्म में खुद निर्देशक नागराज मंजुले भी आपका एक्टिंग करते दिखाई देंगे।
म्यूजिक में कितना दम
फिल्म में अजय-अतुल द्वारा दिए गए म्यूजिक की बात करें तो शायद यही एकमात्र वो असला है जो आपको लगभग तीन घंटे की लंबी फिल्म देखते हुए कहीं-कही पर एंटरटेन करता रहेगा और एक Genuine लोकल स्लम बैकग्राउंड का फील भी देगा।
डायरेक्शन कैसा
डायरेक्शन की तरफ बढ़ेंगे तो एक राइटर के रोल में भी निर्देशक नागराज मंजुले को ही पाएंगे इन्होने खुद इस कहानी को लिखा और फिर संवार कर पर्दे पर उतारा है। फिल्म में एक मैसेज देने की कोशिश की गई है जो मैंने आपको इस लेख के शुरुआत में बताया है। इसके अलावा एक मोटिवेशन विजय बोराडे से फिल्म में मिलता है कि आप अगर चाहें तो मंजिल आपके लिए आसान हो जाती है। फिल्म स्पोर्ट्स ड्रामा है और महिलाओं के अधिकारों या यूं कहें कि खेल के जज्बे को भी दिखाती है और कहीं-कहीं पर कुछ लोगों के इमोशन को भी।
कितने स्टार
अब फिल्म के लिए मेरे रिव्यू पर आएंगे तो भैया मेरे हिसाब से ये बस एक एवरेज फिल्म है और आप एक रियल लाइफ इंसान के नए कॉन्सेप्ट और मेहनत को देखना चाहते हैं तो आप एक बार जरुर इस फिल्म को देखने जा सकते हैं.. मेरे अनुसार इस फिल्म को मैं पांच में केवल 2 स्टार दूंगा। और इसी के साथ वादा करता हूं कि आगे आने वाली सभी फिल्मों के लिए आपके साथ ऐसे ही जुड़ा रहुंगा औऱ अपना रिव्यू और एक्सपीरियंस आपके साथ शेयर करता रहूंगा।
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