इन गलियों में – फिल्म रिव्यू

नफरत नहीं, मुहब्बत का पैगाम इन गलियों में (Inn Galiyon Mein)

अंशुल त्यागी,

क्रिटिक रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐☆

इन दिनों बॉलीवुड में जहां बड़े प्रोडक्शन हाउस नए प्रयोग कर रहे हैं, वहीं कुछ युवा फिल्ममेकर अपने दम पर सिनेमा को एक नई और सकारात्मक दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी कड़ी में अब निर्देशक अविनाश दास का नाम भी जुड़ गया है, जो अपनी नई फिल्म ‘इन गलियों में’ को लेकर चर्चा में हैं। यह फिल्म प्रसिद्ध लेखक वसु मालवीय को उनके पुत्र पुनर्वसु द्वारा दी गई एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि है। पुनर्वसु ने इस फिल्म की पटकथा लिखी है और इसके ज्यादातर गीत भी उन्हीं की कलम से निकले हैं। इस फिल्म के गीतों में वह मिठास और गहराई है जो संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ के गीतों में महसूस की गई थी।

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फिल्म की शूटिंग और सिनेमाई अपील
यदुनाथ फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फिल्म की ज्यादातर शूटिंग लखनऊ और आसपास के इलाकों में हुई है, जिससे फिल्म की लोकल फ्लेवर और वास्तविकता उभरकर सामने आती है।


कहानी की झलक

फिल्म की कहानी दो गलियों—राम गली और रहीम गली के इर्द-गिर्द घूमती है, जो हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक हैं। इन गलियों में हर साल होली का त्योहार सभी धर्मों के लोग मिलकर मनाते हैं। फिल्म के मुख्य पात्र हैं हरि राम और शब्बो, जो सब्जी बेचते हैं। शब्बो के माता-पिता नहीं हैं, जबकि हरि अपनी माँ के साथ रहता है। वहीं, मिर्ज़ा साहिब (जावेद जाफरी) की चाय और कबाब की दुकान इन गलियों के लोगों का मिलनस्थल है। मिर्ज़ा साहिब एक शायर हैं और मोहब्बत का पैगाम देते हैं।

लेकिन इस गंगा-जमुनी तहजीब में जहर घोलने का काम करता है एक राजनीतिज्ञ, जो इन गलियों में हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगा भड़काने की साजिश रचता है। वह भारत-पाक क्रिकेट मैच के दौरान एक बड़ी स्क्रीन लगवाकर दोनों गलियों में नफरत फैलाने की योजना बनाता है। सवाल यह है कि क्या वह अपने इरादों में कामयाब होता है, या फिर प्यार और भाईचारा जीतता है? यह जानने के लिए आपको ‘इन गलियों में’ की यात्रा करनी होगी।


ओवरऑल परफॉर्मेंस

इस फिल्म में जावेद जाफरी, इश्तियाक खान, सुशांत सिंह, अवंतिका दसानी, विवान शाह, राजीव ध्यानी, हिमांशु वाजपेयी जैसे प्रतिभाशाली कलाकार हैं। लेकिन फिल्म की रीढ़ की हड्डी जावेद जाफरी हैं, जिनकी दमदार एक्टिंग हर सीन में जान डाल देती है। फिल्म की संगीत रचना और संवाद लेखन इसे आम मसाला फिल्मों से अलग बनाते हैं।


देखें या नहीं?

अगर आप कंटेंट-ड्रिवन सिनेमा पसंद करते हैं, बेहतरीन गीत-संगीत और जमीन से जुड़ी कहानियों के शौकीन हैं, तो यह फिल्म आपके लिए बनी है। दो घंटे से भी कम की इस फिल्म में एक भी सीन गैर-जरूरी नहीं लगता और यह आपको शुरू से अंत तक बांधकर रखेगी

यह फिल्म सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में एक महत्वपूर्ण संदेश देती है। सरकार को चाहिए कि होली के इस मौके पर हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने वाली इस फिल्म को टैक्स-फ्री किया जाए।

रेटिंग: 4/5 ⭐⭐⭐⭐☆

By Quick News

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